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कुंडलिनी जागरण क्या है?

कुंडलिनी जागृत होने के लक्षण जानने से पहले यह समझना आवश्यक है कि कुंडलिनी क्या है। मनुष्य के शरीर में भौतिक रूप से ११२ चक्र हैं। चक्र अर्थात शरीर में उपस्थित लगभग ७२००० नाड़ियों के विभिन्न मिलन स्थल। ऐसे समझें कि ११२ स्थानों पर नसों की संख्या सबसे ज्यादा होती हैं। इन ११२ चक्रों में ७ चक्र सबसे ज्यादा शक्तिशाली और महत्वपूर्ण होते हैं। ये चक्र रीढ़ की हड्डी में होते हैं। 

 

इन चक्रों से होकर तीन नाड़ियाँ गुजरती हैं – इड़ा, पिङ्गला, और सुषुम्ना। 

 

इड़ा शीतल नाड़ी है और पिङ्गला उष्ण नाड़ी। सुषुम्ना नाड़ी संतुलित है। 

 

चक्र हैं – मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्रार। 

 

तीनों नाड़ियों और सातों चक्रों को सम्मिलित रूप से कुंडलिनी कहा जाता है। इसे एक सर्प की भाँति चित्रित किया जाता है। 

 

कुंडलिनी जागरण की साधना में मूलाधार में ऊर्जा जागृत करके उसे सहस्रार तक ले जाया जाता है। जो सहस्रार में टिक जाते हैं, वे साक्षात् शिवरूप हो जाते हैं, परन्तु यह लौकिक रूप से अंतिम अवस्था है। सामान्य साधक हेतु जरूरी है कि ऊर्जा सातों चक्रों में संतुलित रहे। समाधि हेतु ऊर्जा को सहस्रार में समेट कर कुंडलिनी वहाँ बंद कर ली जाती है। 

 

मूलाधार – यह रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले सिरे पर मलद्वार के ठीक बगल में होता है। मूलाधार यदि संतुलित है तो व्यक्ति में उत्साह की भावना रहेगी। धनलाभ होते रहेंगे। यदि मूलाधार असंतुलित है तो व्यक्ति में शिथिलता होगी। धनहानि का सामना करना होगा। आलस्य प्रभावी रहेगा। हर काम में उच्चाटन का अनुभव होगा। 

 

स्वाधिष्ठान – यह मूलाधार से लगभग ढ़ाई अंगुल ऊपर होता है। शिश्न की सीध में रीढ़ की हड्डी में इस चक्र को महसूस किया जा सकता है। यह चक्र यदि संतुलित है तो व्यक्ति का स्वभाव रचनात्मक होता है और यौनाचार में भी वह सक्रिय रहता है। ऐसे व्यक्ति के लिये सम्भोग पापकर्म नहीं, अपितु गृहस्थ का धर्म होता है। यह समझने की बात है कि सम्भोग भी एक रचनाकर्म ही है। इसी से सृष्टि की रचना निरंतर होती रहती है। 

 

मणिपुर – इसका स्थान ठीक वहाँ है जहाँ सीने की हड्डियाँ ख़त्म होती हैं। उँगलियों से छूकर देखें तो वहाँ एक छोटी सी हड्डी लटकी प्रतीत होगी। बस उसी के सिरे पर इसका स्थान होता है। इस चक्र के मूल तत्व हैं आनंद, उदारता, लोभ, और ईर्ष्या। जब यह चक्र संतुलित होगा तो व्यक्ति में आनंद और उदारता का भाव रहेगा। लेकिन यदि यह चक्र असंतुलित हुआ तो लोभ और ईर्ष्या से ग्रस्त हो जाएगा व्यक्ति। इस चक्र के संतुलित होते ही पेट निकल आता है। अक्सर आपने देखा होगा कि खुशमिजाज व्यक्तियों के पेट निकले होते हैं। यह भी ध्यान देने की बात है कि पेट निकलने का अर्थ हमेशा ही मणिपुर का संतुलित होना नहीं होता। 

 

अनाहत – सीने के ठीक बीचोंबीच इसका स्थान होता है। इसी स्थान से अनाहत नाद अर्थात ॐ की ध्वनि निकलती है। हृदय के निकट होने की वजह से यह चक्र हृदय से जुड़ा होता है तथा हृदय से सम्बंधित भाव इसी चक्र से जुड़े होते हैं – प्रेम, घृणा और डर। जब किसी का दिल टूटता है तो हृदय चक्र पर प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि अथाह प्रेम, अथाह घृणा में बदल जाता है। प्रेम में होने पर खोने का डर भी इसी चक्र के गुणों के कारण होता है। अब तक आप समझ गए होंगे कि इस चक्र के संतुलन और असंतुलन का क्या प्रभाव होता है। 

 

विशुद्धि – यह चक्र ठीक-ठीक कंठ में होता है। इसके गुण हैं – कृतज्ञता और दुःख। आपने देखा होगा कि इन दोनों अवस्थाओं के अतिरेक में व्यक्ति का कंठ अक्सर अवरुद्ध हो जाता है। वाकसिद्धि भी इसी चक्र को साधने से मिलती है। इस चक्र के असंतुलित होने पर व्यक्ति बहुत ज्यादा बोलता है। 

 

आज्ञा – दोनों भवों के बीच इस चक्र का स्थान है। इसे थर्ड ऑय या तीसरी आँख भी कहते हैं। यह चक्र ज्ञान, बुद्धि, सतर्कता का स्थान तो है ही, साथ ही क्रोध का स्थान भी यही है। यदि यह चक्र संतुलित है तो ज्ञान भी उच्चतम स्तर पर होगा और क्रोध की शक्ति भी। इस चक्र को साधने के बाद दिव्य दृष्टि भी मिलती है जो साधक को कहीं के भी दृश्य दिखा सकती है। जितनी ज्यादा साधना, उतनी तीक्ष्ण दृष्टि। इसे साधने के बाद साधक लोक, परलोक, सूक्ष्म शरीर आदि देख सकता है।

 

सहस्रार – इस चक्र में अपरिमित शक्तियाँ हैं। कई सारी शक्तियों में से एक है शक्तिपात की शक्ति और दूसरी है दूसरे व्यक्ति की चेतना व शरीर पर नियंत्रण की शक्ति। इस चक्र में जो पहुँच जाते हैं वे एकत्व को समझ जाते हैं। ईश्वर एक है और हम सब उसी चेतना के अंश हैं जिसका अनुभव सहस्रार में होता है। इस स्तर तक विरले साधक ही पहुँच पाते हैं। यहाँ पहुँचने के बाद साधक मनुष्य रूप में रहते हुए भी देवत्व को प्राप्त हो जाता है। अधिकांश साधक केवल इस चक्र का स्पर्श भर कर पाते हैं। 

 

कुंडलिनी के जागृत होने का लक्षण यह है कि विभिन्न चक्रों से जुड़ी भावनाएँ नियंत्रित रहेंगी। साथ ही उनके आसपास के अंग भी स्वस्थ रहेंगे। इस पोस्ट में कुंडलिनी के बारे में सुई  की नोंक भर बात ही कही गई है। जबकि यह एक समुद्र है। ठीक ठीक समझने के लिये समुद्र में उतरने की जरूरत है। 

 

मिठाई का ठीक ठीक स्वाद खाकर ही समझा जा सकता है। इसे बोलकर नहीं समझाया जा सकता है। उसी प्रकार अध्यात्म की बातें भी चखकर ही जानी जा सकती हैं। 

 

कुंडलिनी की शक्ति का अनुभव करने हेतु शक्तिपात सत्र का आयोजन पहले भी किया गया है और आगे भी किया जाएगा। सत्रों में हिस्सा लेने हेतु ग्रुप से जुड़े रहें। 

 

अगला सत्र बुधवार 17 नवम्बर 2021 की रात्रि में नौ बजे से होगा। 

 

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